बहुत दिनों से था मन...
जाने कैसी उलझन में,
कुछ बातें मन के भीतर...
और कुछ बाहर,
कोई तालमेल नहीं था उनमें
पता नहीं क्या सोचता था मन...
जैसे...
जैसे हवा ठहरी हुई हो और पत्ते भी कर रहे हो किसी का इंतज़ार...
बाहर भी उमस काफी थी इन दिनों,
पसीने से लथपथ शरीर और उलझनों से संतापित मन,
दोनों ही नहीं समझ पा रहे थे कुछ भी
कैसे निबटें खुद से?
कैसे कहें खुद से?
कैसे समझाएं खुद को?
कुछ समझ नहीं आ रहा था
कभी मन करता था कि फूट फूट के रोयें
तो कभी चिल्लाएं
गले को इतना दर्द दें कि बस.........
शायद कोई नहीं...
हाँ.... कोई नहीं समझता था उलझन
लेकिन....
फिर वो शाम की बारिश
जैसे इंतज़ार कर रही हों पत्तियां
रुकी हवा स्वागतोत्सुक हो उसके
घनी काली घटाओं ने दिया साथ
जम के बरसीं वो आज
पत्ती, फूल, सड़क, मकान.... सभी भीग रहे थे
आज मैं भी छत पर था
बादलों की गरज और तड ताडाती बिजली ने उकसाया मुझे भी
भीग रहे थे तन मन
बरबस बोल पड़ा मैं भी, निकल पड़े मेरे अरमान,
खूब रोया , खूब चिल्लाया
विलीन हो रहे थे मेरे आंसू और बारिश की बूँदें
आखिर कैसे पहले निकल सकता था मेरा उन्माद?
कैसे मिल पाते दोनों?
मेरा चीत्कार और बारिश की बूँदें दोनों हो रहे थे एकाकार,
जाने कहाँ तक भीगा मैं?
और मेरा मन!!!!!
आज तो बारिश ने उसे जमकर भिगोया,
जम कर बहा मेरा उन्माद
सच है, सैलाब शांत होते जरूर हैं
पर वक़्त लगता है
अब बारिश भी धीमी हो गई है
उसने बंद कर दिए हैं थपेड़े, अब सहला रही है मेरे मन को
जैसे.................
हाँ....... जैसे बचपन में फटकारने के बाद सहलाते थे पिताजी
निकल जाता था सारा द्वंद्व और स्वच्छ हो जाता था मन
आज हूँ मैं स्वच्छ एक नया जन्म है मेरा
सच है........
धो देती है बारिश बहुत कुछ....
जब बरसती है जमकर..........
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Gud1 Patanjali.......Its 1 of your best composition,i loved it personally as this poetry had the power to take me to the world of thoughts in which it may have started....... Congrats to you for a wonderful writing
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